ग्रामीण उत्तराखंड में तैनाती से स्पेशलिस्ट डॉक्टरों को परहेज! धरती के भगवान के आगे सरकार के सारे दांव ‘फेल’

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उत्तराखंड में स्वास्थ्य विभाग की स्थिति से हर कोई वाफिक है। प्रदेश में स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की कमी तो वैसे ही खलती रही है लेकिन ग्रामीण उत्तराखंड से तो मानो स्पेशलिस्ट डॉक्टर खफा से ही हो गए हैं। ऐसा उन आंकड़ों को देखकर कहा जा सकता है जो इस मामले में ग्रामीण उत्तराखंड के गर्दिश में जाते हालात को बयां करते हैं। हैरत की बात तो ये है कि राज्य सरकार भी इन स्थितियों को एक तमाशबीन की तरफ सिर्फ निहार रही है। यह स्थिति तब है जब पहले ही ग्रामीण उत्तराखंड की स्वास्थ्य सेवाओं के लिहाज से सबसे खराब हालत है। मोदी सरकार ग्रामीण भारत को सशक्त करने पर जोर दे रही है लेकिन उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों से आज भी बीमार और गर्भवती महिलाओं को कंडी या कंधों पर हॉस्पिटल पहुंचाने की तस्वीरें आम हैं। यहां ग्रामीण क्षेत्रों में सामान्य एमबीबीएस चिकित्सकों का मिलना भी दूभर है, ऐसे में स्पेशलिस्ट चिकित्सकों की उम्मीद करना तो बेमानी होगा। बात है कि न तो स्पेशलिस्ट डॉक्टर्स पहाड़ों पर चढ़ना चाहते हैं और न ही सरकारें ऐसा करवा पाने में कामयाब हो पा रही हैं। ये अलग बात है कि कागजों में सरकार के पास गिनाने के लिए सैकड़ों योजनाएं भी हैं और सैकड़ों करोड़ के बजट खर्च का ब्योरा भी. हालांकि धरातल पर कुछ नहीं दिखता है। अब उत्तराखंड में ग्रामीण क्षेत्रों की हालात को बयां करते उन आंकड़ों को भी देखिए जो खुद भारत सरकार ने जारी किए हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी ही परेशानी नहीं है बल्कि लैब टेक्नीशियन जैसे पदों पर भी स्वास्थ्य कर्मी मौजूद ही नहीं हैं। उत्तराखंड में ग्रामीण क्षेत्र की बात करें तो यहां 207 पदों के सापेक्ष केवल 81 लैब टेक्नीशियन ही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो एक्सरे और ईसीजी जैसी सामान्य जरूरत की मशीन भी नहीं हैं। नतीजा यह है कि जिस ग्रामीण क्षेत्र को मजबूत करने के दावे किए जाते हैं, वहां के लोग ग्रामीण क्षेत्र के अस्पतालों में केवल सामान्य खांसी, जुखाम और बुखार का इलाज करवाने तक ही सीमित हैं। जबकि कोई भी दूसरी बीमारी या दुर्घटना होने पर इन्हें देहरादून और हल्द्वानी का ही रुख करना पड़ता है। हालत यह है कि कई दिनों का सफर करने के बाद इन शहरों में मरीज अपने तीमारदार के साथ आते हैं और किराए पर मकान लेकर सरकारी अस्पतालों में इलाज करवाते हैं. इससे उनके इलाज का खर्च दोगुना बढ़ जाता है। अस्पतालों के लिए बेहद जरूरी नर्सिंग स्टाफ के मामले में भी राज्य की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में तो हालत खराब ही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में 718 पदों के सापेक्ष 351 पर नर्सिंग स्टाफ मौजूद हैं, यानी यहां भी 367 पद खाली पड़े हैं। स्पेशलिस्ट डॉक्टरों का टोटा: उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों का ये आंकड़ा 2022 तक का है, जिसे भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने ही जारी किया है।सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में सर्जन के 71.9%, प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञों के 63%, चिकित्सकों के 67.5% और बाल रोग विशेषज्ञों के 69.7% पद रिक्त हैं। राज्य के लिए सबसे बड़ी परेशानी इस बात की है कि जो चिकित्सक पहाड़ों पर काम भी कर रहे थे। वह या तो धीरे-धीरे सेवानिवृत हो रहे हैं या फिर पहाड़ से मैदान ना आ पाने की अंतिम संभावना के बीच अपनी सेवाएं छोड़ रहे हैं। उधर सरकार भी इन चिकित्सकों को पहाड़ पर ही बने रहने के लिए लुभाने में नाकाम रही है। इन समस्याओं के बीच राज्य सरकार की तरफ से विशेषज्ञ चिकित्सकों के सेवानिवृत होने की 60 साल की आयु के मामले में संशोधन करते हुए 5 साल की अतिरिक्त सेवा दिए जाने का प्रावधान भी किया गया है। इसके बावजूद हालात सुधर नहीं रहे।